संजीवनी के पहाड़ पर विजय पताका की उम्मीद

संजीवनी के पहाड़ पर विजय पताका की उम्मीद

आलोक मेहता

सचमुच भारत ही नहीं दुनिया बदल गई। लगभग 35 साल पहले अक्टूबर 1985 में मैंने अपने दिल्ली के अखबार में दवाइयों के अंतर्राष्ट्रीय धंधे और भारत की दयनीय दशा, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट पर दो तीन किस्तों में खोजपरक विशेष ख़बरें लिखी थी। आज भी फाइलों में संजोई राखी हैं। इनमें यह तथ्य उजागर किया गया था कि देश में करीब 425 दवाई निर्माता कंपनियां बिना लाइसेंस मनमाने ढंग से दवाइयां बनाकर बेच रही हैं और इनमें 29 बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी हैं। ये कम्पनियाँ करीब 250 करोड़ की दवाएं आयात करके भारत को नुकसान भी पहुंचा रही है। कई ऐसी दवाइयां भी बेच रही हैं, जिन्हें अमेरिका और यूरोपीय देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है। मामला संसद में भी उठा। युवा प्रधान मंत्री राजीव गाँधी ने अपने मित्र सांसद विश्वजीत सिंह को विस्तार से रिपोर्ट तैयार करने को कहा। विश्वजीत सिंह ने कई सप्ताह अध्ययन और विभिन्न क्षेत्रों के वरिष्ठ लोगों से जानकारियां इकट्ठी कर करीब दो सौ पेज की रिपोर्ट सर्कार को दी। उसमें भी यह बात प्रमुखता से आई कि शीर्ष अधिकारीयों और कुछ नेताओं के स्वार्थों एवं भ्रष्टाचार के कारण भारतीय हितों को क्षति पहुंच रही है। लेकिन जैसा सरकार में होता है, रिपोर्ट पर महीनों सलाह मशविरे के बाद कुछ कदम उठाये गए। हाँ विदेश से दवाई निर्माण के कच्चे माल (बल्क ड्रग्स) के घोटाले के प्रमाण मिल जाने से राजीव गाँधी ने प्रभावशाली वरिष्ठ मंत्री वीरेंद्र पाटिल को मंत्रिमंडल से निकाल दिया।

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यह कथा इसलिये याद आई और अपने पाठकों के लिए लिखना पड़ा, क्योंकि इस समय अमेरिका, ब्राजील ही नहीं ब्रिटैन और यूरोपीय देश, अफ़्रीकी देश, खाड़ी के देश दवाइयों के लिए  बहुत हद तक भारत पर निर्भर रहने लगे हैं। चीन भी सबसे बड़ा निर्यातक देश है, लेकिन उस पर भरोसा कम हो रहा है। कोरोना संक्रमण संकट के कारण तो ब्राजील के राष्ट्रपति ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ में रामायण की जीवन रक्षक संजीवनी भारत से मिलने की बात कह दी। अहंकारी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को सार्वजनिक रूप से भारत का एहसान मानकर धन्यवाद् देना पड़ा। वह भी उस कुनैन (हाइड्रोक्लोरोक्वीन) की अधिकाधिक सप्लाई के लिए, जिसे बचपन में हमें मलेरिया बुखार में खाने को दी जाती थी और बहुत सस्ती या सरकारी विभाग से मुफ्त में दिया जाता था। उसे हम कड़वा जहर कहकर बाद में मिश्री मलाई मांगते थे।

भारत के साथ दादागिरी अब नहीं चल सकती और दवाइयों के निर्माण , उपयोग , आयात - निर्यात के पर्याप्त नियम कानून हैं। कुछ बहुत कड़े भी हैं, जैसे इस सामान्य गरीबा कुनैन के निर्यात पर भी कुछ वर्षों से प्रतिबन्ध रहा है, क्योकि इसे भारतीय हितों का ध्यान अधिक रखा जाता है। फिर भी यह ग़लतफ़हमी भी नहीं पाली जा सकती कि विश्व में हमारा वर्चस्व ही हो गया या हो जायेगा और बहुराष्ट्रीय कंपनियां केवल उदारता से भारत में 100 प्रतिशत पूंजी लगाकर मुनाफा और धंधा नहीं देख रही हैं। असलियत तो यह है कि दवाई निर्माण की कंपनियों में भारी पूंजी निवेश की छूट मिलने से कई विदेशी कम्पनियाँ लाभ उठा रही हैं। दुखद बात यह है कि पिछले दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र की पांच बड़ी कंपनियों को हमारी सरकारी लालफीताशाही एवं निहित स्वार्थों वाली लॉबी ने ठप्प करा दिया। चार तो बंद कर उनके उत्पादक केंद्रों की  जमीन, मशीन इत्यादि बिकवाने की फाइलें बना दी| केवल कर्नाटक की एक कंपनी थोड़े से मुनाफे के आधार पर अटकी हुई है। साठ-सत्तर के दशक में बनी आई डी पी एल (इंडियन ड्रग्स फार्मासूटिकल्स लिमिटेड, हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड, बंगाल केमिकल्स एन्ड फार्मासूटिकल्स, राजस्थान ड्रग्स एन्ड फार्मासूटिकल्स जैसे संस्थानों को सुधर कर अधिक सुयोग्य लोगों को रखकर कच्चा माल कही जाने वाली दवाइयों का बड़े पैमाने पर निर्माण होते रहने पर हमें बल्क ड्रग्स (ए पी आई) के लिए चीन से आयात पर निर्भर नहीं होना पड़ता। फिलहाल सरकारी गलियारों से यह संकेत मिले हैं कि अर्ध मृत हितुस्तान एरोनॉटिक्स को पुनः नए सिरे से आगे बढाकर दवाइयों के निर्माण को नई गति दी जाए।

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बहरहाल सार्वजनिक क्षेत्र की अपेक्षा निजी क्षेत्र में ही बड़े पैमाने पर पूंजी लगाकर न केवल भारत में अधिकाधिक सही और उपयुक्त दामों पर दवाइयां उपलब्ध करना है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सही अर्थों में चीन को पीछे छोड़कर कई गुना निर्यात बढाकर दुनिया में वर्चस्व कायम करने का सुनहरा अवसर आ गया है। अब वर्तमान स्थिति और तथ्यों पर भी ध्यान दिया जाए। इस समय हमारे औषध यानी फार्मा उद्योग में करीब 43 अरब डॉलर (3,01,000 करोड़ रूपये) की पूंजी लगी हुई है। 2018-2019 तक हम करीब 20 अरब डॉलर यानी लगभग 1 लाख 47 हजार 420  करोड़ रुपयों की दवाई निर्यात कर रहे थे। कच्चे माल तथा अन्य दवाइयों के आयात पर 72 हजार 500 करोड़ रुपया खर्च कर रहे हैं। निर्यातकों में अग्रणी और विश्वसनीय होने से विश्व में भारत को "फार्मेसी ऑफ़ वर्ल्ड" तक कहा जाने लगा है। भारत दुनिया में जेनेरिक दवाइयों का सबसे बड़ा निर्यातक है। लेकिन विडम्बना यह है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू की गई जन औषधि केंद्रों पर सस्ती जेनेरिक दवाइयां उपलब्ध कराने में कुछ राज्यों ने ढिलाई कर राखी है, जिससे हजारों दुकानें खुल गई, लेकिन स्वार्थी तत्व वहां दूसरी देशी विदेशी कंपनियों की महंगी दवाई बेचने लगे हैं इस दृष्टि से भारत में भी जेनेरिक दवाइयों की उपलब्धता बढ़ाने पर कड़ी निगरानी रखनी होगी। एक मजेदार समस्या यह भी है कि टेंडर प्रणाली और न्यूनतम मूल्य   को आदर्श कहा जा सकता है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता के कारण दवाई हो या सोलर पैनल भारत के सार्वजानिक उपक्रम अथवा देशी निजी कंपनियों को धकेल कर सबसे आगे होता रहा है। नई परिस्थितियों में चीन से व्यापारिक रिश्तों और दबाव के रहते हुए भारतीय कंपनियों को वरीयता देने के लिए नियम कानून में संशोधन करने होंगे। भारत के पास चीन की तुलना में जड़ी बूटियों, रसायन, वनस्पति कम तो नहीं माने जा सकते हैं। कोरोना संकट से निपटने के साठ भारतीय फार्मा उद्योग को आत्म निर्भर बनाने के लिए सर्वौच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

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इससे जुड़ी दूसरी समस्या नकली दवाइयों के निर्माण और पिछड़े प्रदेशों में धड़ल्ले से बिकने की है। इस काम में तो कुछ प्रभावशाली पुराने नेताओं की भूमिका और कम्पनियो पर भी कठोर कदमों की आवश्यकता होगी। बहु राष्टीय कंपनियों को पूंजी लगाने और व्यापार की सुविधाएं देने के साथ महंगी दवाई बेचने के लिए व्यापक स्तर पर डॉक्टरों को प्रलोभन देने जैसे हथकंडों को रोकने के उपाय करने होंगे। भारत के पास खनिजों की तरह तेल और औषध के विपुल भंडार हैं और इस पहाड़ पर भारत का झंडा अधिक ईमानदार और सधे क़दमों से ही फहराया जा सकेगा।

 

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